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कविता

इज्जत पानी हथियाए

जीत नाराइन


इज्‍जत पानी हथियाए, धरती उलटते-उलटते, उसमें अपने पाँव धँसा दिए
और रीति-रिवाज का पालन किए
जैसे बाँस की कच्‍ची झंडी, अचानक जड़ धरकर उग आती है
तुम बाँस से बाँस के थाला बन गए
तब उड़ता रहा टुकडा़ लत्ता, अब हरा-भरा बाँस का पत्ता है
सब उडे़ हवा में, आनंद में अंधा

 


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